Tuesday, August 30, 2011

अन्नागीरी से दूर दिखे साहित्यकार

पूरे 12 दिन, 288 घंटे। 74 साल के बूढ़े आंदोलनकारी का गांधीवादी आंदोलन। देशभर में गांधीवादी हजारे की अन्नागीरी। जनपद के जनपद अन्नामय हो गए। गांव, गली, मोहल्ले, हर तरफ बस अन्ना ही अन्ना। अपने पहाड़ की कुमाऊंनी धरती पर भी लहराते तिरंगे, मैं अन्ना हूं की टोपियों से ढके सिर दिखाई देते रहे। एक दिन, दो दिन, तीन दिन, धीरे-धीरे समय बढ़ता गया, लोग जुड़ते गए, कारवां दिनोंदिन बड़ा होता गया। रिंकू, टिंकू, सोनू, मोनू पढ़ाई छोड़ एक-दो-तीन-चार, बंद करो ये भ्रष्टाचार के नारे लगाने लगे तो गुरुजी अपने स्तर के गंभीर नारों को आवाज देने लगे। इंसाफ दिलाने वाले वकील साहब, जीवनदाता डॉक्टर साहब मैदान में कूद पड़े तो लायंस जैसे संभ्रांतजनों की संस्थाएं भी इस यज्ञ में आहुति देने को पहुंच गई। व्यापारियों ने एक दिन को कारोबार को तिलांजलि दे दी। अपने कुमाऊं में तो बिजली कर्मी भी यही गाते सुनाई दिए- मिले सुर मेरा-तुम्हारा तो सुर बने हमारा। मगर एक बड़ा ताज्जुब। पूरे आंदोलन में साहित्य जगत में सन्नाटा रहा, घुप्प अंधेरा रहा। समाज के दर्पण-साहित्य के सर्जकों में शून्यता दिखाई दी। कुमाऊं को साहित्य भूमि कहा जाता रहा है। साहित्य नगरी अल्मोड़ा से भी कोई आवाज नहीं उठी। मंडल के अन्य पांच जिलों- नैनीताल, पिथौरागढ़, चंपावत, बागेश्र्वर, ऊधमसिंह नगर, यानी सभी जगहों के साहित्यकार, कवि, शायर शांत रहे। छोटी से छोटी काव्य गोष्ठी और बड़े से बड़े कवि सम्मेलन, मुशायरों में राजनीतिज्ञों के दिल को भेद डालने वाले तीरंदाजों के तरकश तीरविहीन नजर आए। वैसे यह साहित्यिक शून्यता राष्ट्रीय स्तर पर रही। कुमार विश्र्वास ने कवियों को तो आलोचना का भागी बनने से बचा लिया, मगर साहित्यकारों, शायरों में तो कोई हिम्मत नहीं दिखा पाया। इतिहास के पन्नों में तो हमने यही पढ़ा कि जंग-ए-आजादी में साहित्यकारों की बड़ी भूमिका रही। उन्होंने अपने फन से लोगों को जोड़ दिया, मगर आजादी की इस दूसरी लड़ाई-भ्रष्टाचारके खिलाफ जंग में उनके वंशजों में वह चेतना, वह जागरूकता गायब-सी लगती है। आंदोलन निपट गया। उम्मीद पर दुनिया कायम है। सो हम भी उम्मीद करते हैं कि शायद वे अब इस पर मंथन करने को समय निकाल लें।

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