Friday, October 7, 2011

बापू, हम शर्मिंदा हैं


तीन दिन पहले तक सब ठीक-ठाक था। बच्चे, युवा, महिलाएं, बूढ़े, सभी रोजाना के काम निपटाते दिख रहे थे, पर न जाने तराई के गुलदस्ते को किसकी बुरी नजर लग गई कि दंगा हो गया। फिर कफ्र्यू और उसके बाद घरों में जिंदगियां नजरबंद।
शहर में दंगे, अराजकता ने पांव पसारे तो लोग परेशान हो उठे। टिंकू, पिंकू, सोनू, मोनू का स्कूल जाना, गली में क्रिकेट खेलना रुक गया तो युवाओं का डिग्री कॉलेज में कॅरियर की पढ़ाई। जिंदगी के अंतिम पड़ाव का एकमात्र सहारा 'बातचीत' के लिए बुजुर्ग तरसने लगे तो घरों में रहने वाली महिलाएं भी सब्जी आदि लाने को तड़प गईं। बिन व्यापार के व्यापारी परेशान, बिन रोगी के अस्पताल सूने। फरियादी नहीं तो वकील साहब भी खाली और गरीब की तो पूछिए मत।
शहर के हफीज खान बोले, 'हमारे बुजुर्गों ने हमें और हमने अपने बच्चों को तो सही तालीम दी थी, मगर आज के सियासतदांओं के चक्कर में फंसकर न जाने वे क्यों उग्र हो जाते हैं। ऐसा कफ्र्यू पहले कभी नहीं देखा। ऐसी घटनाएं बहुत तकलीफ पहुंचाती हैं।'
चौराहों पर, रोडवेज गेट पर लगने वाली दुकानों पर आजकल रात में चाय की चुस्कियां नहीं ली जा रहीं। चाय की ठेलियां बंद हैं, फिर ग्राहक भी नहीं हैं। गांधी पार्क पर चाय की दुकान चलाने वाले सुधीर वासन कहते हैं, 'रोजाना ढाई-तीन सौ रुपये कमा लेते थे, पर तीन रोज से एक पैसे की कमाई नहीं हुई है।' उसके बाद उन्होंने जो कुछ कहा, उसने शिक्षा व्यवस्था पर बड़ा सवाल खड़ा कर दिया। बोले, 'साहब, हम तो बापू से शर्मिंदा हैं। उनके जन्मदिन वाले दिन हमारे ही बच्चों ने दंगा-फसाद किया। पता नहीं, हमारी तालीम में क्या कमी रह गई, जो हमारे बच्चे अपने ही देश में अपने ही लोगों के साथ दंगा-फसाद करते फिर रहे हैं।'
(दैनिक जागरण के ऊधमसिंह नगर संस्करण में 5 अक्टूबर, 2011 को प्रकाशित)

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