पत्रकारिता की नई पीढ़ी में जोश है, पर धैर्य के साथ अध्ययन की ललक नहीं. हिन्दी आलोचना के शिखर पुरुष आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने जब मालिक मुहम्मद जायसी पर आलोचनात्मक टीका लिखी तो पहले कबीर, सूर, तुलसी के सम्पूर्ण उपलब्ध साहित्य का अध्ययन किया. तभी वह जायसी को कबीर, सूर, तुलसी के साथ स्थापित कर पाये. आजकल ब्लॉग पर हमारी युवा पीढ़ी के जोशीले सदस्य लगातार धर्म और उसके नुमाइंदों को निशाना बना रहे हैं. धर्म मेरा प्रिय विषय है. तब भी मैं अभी तक इस क्षेत्र में हाथ आजमाने की हिम्मत नहीं जुटा पाता हूँ. वजह, अभी खुद को प्रशिक्षु समझता हूँ और निरन्तर अध्ययन कर रहा हूँ. लेकिन इन ब्लॉगर्स की आलोचनात्मक टिप्पणियों को पढ़कर खुद को रोक नहीं पाया. हमारे एक साथी ने लिखा कि आज के सन्त-महात्मा छुट्टा सांड की तरह घूम रहे हैं. आमजन को लूट रहे हैं. दरअस्ल, उनकी पीड़ा यह थी कि उन्होंने एक महात्मा को एसी कार में बैठकर जाते देख लिया. वह न तो महात्मा जी को जानते थे और न ही उनसे अपनी इस जिज्ञासा के बारे में पूछा ही. बस लौटते ही पहली फुर्सत में ब्लॉग लिख डाला. ऐसे में दो सवाल उठते हैं. एक, क्या सन्त-महात्माओं को फटे और मैले-कुचैले कपड़ों में रहना चाहिए? या फिर दो, क्या एसी कार में बैठने से पहले उन्हें सन्यास का त्याग कर देना चाहिए? इसे मैं एक उदाहरण से समझाने का प्रयास करता हूँ. महर्षि वेद व्यास अपने पुत्र सुखदेव जी महाराज को श्रीमद्भागवत पुराण का ज्ञान देना चाहते थे, ताकि वह जनकल्याण का मार्गदर्शक बन सके. वह खुद ऐसा क्यों नहीं कार सके, इसकी चर्चा फिर कभी करूंगा, क्योंकि चर्चा लम्बी हो जाएगी. फ़िलहाल, विषय पर ही रहता हूँ. सुखदेव जी बचपन में ईश्वर की खोज में वनों में निकल पड़े. व्यास जी उन्हें रोकने के लिए उनके पीछे दौड़े. रस्ते में नदी पड़ी. कुछ स्त्रियाँ निर्वस्त्र होकर उसमें नहा रही थीं. सुखदेव जी नदी पार कार गये और स्त्रियाँ नहाती रहीं. जब वृद्ध व्यास जी नदी पर पहुंचे तो स्त्रियों ने तुरन्त कपड़े खींचकर खुद को ढक लिया. व्यास जी ने पूछा, ‘अभी मेरा पुत्र नदी पार करके गया, तब तो आप नहाती रहीं और अब मुझ वृद्ध ऋषि को देखकर तन ढक रही हैं?’ स्त्रियाँ बोलीं, ‘जो अभी गया, वह तो दीवाना था. उसे तो स्त्री-पुरुष का भेद ही नहीं मालूम तो उससे क्या पर्दा. लेकिन ऋषिवर, आपको तो इसका भान है. आपके सामने हम ऐसे कैसे रह सकती हैं.’ ऐसी सूक्ष्म दृष्टि के सुखदेव जी का दृष्टिकोण भी एक बार भ्रमित हो गया. उन्होंने पिता व्यास जी से पूछा, ‘महलों में रहने और सारे ऐशो-आराम भोगने के बाद भी राजा जनक को विदेह क्यों कहा जाता है?’ विदेह, यानि जिसे देह का भी भान न हो. व्यास जी ने कहा कि इसका जवाब तो खुद जनक जी ही दे सकते हैं. सुखदेव जी, राजा जनक के पास गये और उनसे वही सवाल पूछा. जनक जी मुस्कुराये. उन्होंने एक कटोरे में ऊपर के अन्तिम छोर तक घी भरवाया और उसमें एक बाती जलवा दी. फिर सुखदेव जी से कहा, ‘आप इस कटोरे को हाथ में लेकर पूरा महल देखिये कि महल कितना सुन्दर है, लेकिन कटोरे से एक भी बूंद घी ज़मीन पर नहीं गिरना चाहिए, अन्यथा आप मृत्युदण्ड के भागी होंगे.’ दासों के साथ पूरे महल का चक्कर लगाने के बाद जब सुखदेव जी लौटे तो जनक जी उनसे पूछा, ‘महल कैसा लगा?’ सुखदेव जी ने कहा, ‘महल देखने की नौबत ही कहाँ आई, महाराज. सारा ध्यान तो इस कटोरे पर लगा रहा. मृत्युदण्ड का भय मुझे नहीं था, पर आपकी आज्ञा का पालन मुझे करना था. आज्ञा की अवहेलना कर आपका अपमान कैसे करता.’ जनक जी बोले, ‘जिस तरह पूरा महल घूमने पर भी आपका ध्यान कटोरे पर लगा रहा, उसी प्रकार महल में रहते हुए भी मेरा ध्यान प्रभु के श्रीचरणों में लगा रहता है.’ यह इससे भी सिद्ध होता है कि एक बार राजा जनक के महल में आग लग गयी. दास-दासी अपना सामान लेकर भागने लगे. जनक जी से कहा गया कि महाराज, आपके महल में आग लग गयी है तो जनक जी बोले, ‘जब शरीर ही अपना नहीं है तो महल मेरा कैसे हो गया.’
तो फेर नज़रिये का है. किसी सन्त-महात्मा को एसी कार में मोबाइल पर बात करते देखने से यह सिद्ध नहीं हो जाता कि उन भौतिक वस्तुओं के प्रति उनका मोह है. चरम स्थिति में पहुँचने के बाद वे वस्तुएं तो मात्र साधनभर हैं. वे होंगी तो भी सन्तों को साध्य प्राप्त होगा. नहीं होंगी तो भी वे अपने साध्य को प्राप्त कर लेंगे. एक साधारण सा उदाहरण देता हूँ. एक छात्र को बाइक मिल जाये तो वह उसे हवा की तरह उड़ाएगा और बिना किसी काम के दोस्तों के घर पहुँच जाएगा, क्योंकि उसका उद्देश्य होता है कि लोग और दोस्त उसे बाइक चलाता हुआ देखें. फिर बाइक छीन ली जाये तो वह दोस्तों के घर काम से ही जाएगा, क्योंकि उसका उद्देश्य नष्ट हो चुका होता है. अब किसी नौकरीपेशा व्यक्ति को बाइक दे दी जाये तो वह उसी से नौकरी पर जाएगा. फिर छीन ली जाये तो भी वह नौकरी पर जाएगा, क्योंकि उसका उद्देश्य नौकरी करना है. बाइक तो साधनभर है. तो मेरे भाइयों, सन्त-महात्माओं पर चर्चा करना बहुत अच्छी बात है, लेकिन निवेदन यह है कि पहले उन्हें और उनके कृत्यों को जान-समझ लें.
तो फेर नज़रिये का है. किसी सन्त-महात्मा को एसी कार में मोबाइल पर बात करते देखने से यह सिद्ध नहीं हो जाता कि उन भौतिक वस्तुओं के प्रति उनका मोह है. चरम स्थिति में पहुँचने के बाद वे वस्तुएं तो मात्र साधनभर हैं. वे होंगी तो भी सन्तों को साध्य प्राप्त होगा. नहीं होंगी तो भी वे अपने साध्य को प्राप्त कर लेंगे. एक साधारण सा उदाहरण देता हूँ. एक छात्र को बाइक मिल जाये तो वह उसे हवा की तरह उड़ाएगा और बिना किसी काम के दोस्तों के घर पहुँच जाएगा, क्योंकि उसका उद्देश्य होता है कि लोग और दोस्त उसे बाइक चलाता हुआ देखें. फिर बाइक छीन ली जाये तो वह दोस्तों के घर काम से ही जाएगा, क्योंकि उसका उद्देश्य नष्ट हो चुका होता है. अब किसी नौकरीपेशा व्यक्ति को बाइक दे दी जाये तो वह उसी से नौकरी पर जाएगा. फिर छीन ली जाये तो भी वह नौकरी पर जाएगा, क्योंकि उसका उद्देश्य नौकरी करना है. बाइक तो साधनभर है. तो मेरे भाइयों, सन्त-महात्माओं पर चर्चा करना बहुत अच्छी बात है, लेकिन निवेदन यह है कि पहले उन्हें और उनके कृत्यों को जान-समझ लें.
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